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बुधवार, 13 जून 2018

जलवायु परिवर्तन का सर्वाधिक प्रभाव सबसे गरीब क्षेत्रों पर होगा

शोधकर्ताओं ने किया है यह दावा

एक शोध से पता चला है कि अगर पृथ्‍वी की सतह का वैश्विक औसत तापमान पेरिस समझौते में तय सीमा तक यानी 1.5 डिग्री या दो डिग्री सेल्सियस तक पहुंचता है तो जलवायु परिवर्तन के कारण सबसे ज्यादा प्रभावित दुनिया के सबसे ज्यादा गरीब क्षेत्र होंगे।

सोमवार, 15 जुलाई 2013

'पार्टिकुलेट मैटर' से हर वर्ष 20 लाख की मौत

वॉशिंगटन। 'एनवायर्नमेंटल रिसर्च लैटर्स' नामक पत्रिका में एक शोध के आधार पर दावा किया गया है कि मानवीय कारणों से फैलने वाले वायु प्रदूषण के कारण हर साल दुनिया में 20 लाख से अधिक लोगों की जान चली जाती है, जिनमें सबसे अधिक संख्या एशिया तथा पूर्वी एशिया के लोगों की है। इसके अनुसार मानवीय कारणों से ओजोन में छिद्र बढ़ता जा रहा है, जिसके कारण दुनियाभर में हर साल करीब चार लाख 70 हजार लोगों की मौत हो जाती है। इसका यह भी कहना है कि मानवीय कारणों से 'फाइन पार्टिकुलेट मैटर' में भी वृद्धि होती है, जिससे सालाना करीब 21 लाख लोगों की मौत हो जाती है।

शनिवार, 13 जुलाई 2013

हिमालय के ग्लेशियरों पर कार्बन का बुरा असर

जंगल की आग के कारण पैदा हुआ कार्बन हिमालय के ग्लेशियरों पर बुरा असर डाल सकता है। नए शोध में चेतावनी दी गई है कि बर्फ से बनने वाली नदियों का प्रवाह भी प्रभावित हो सकता है। बैंगलोर में इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस के विभाग दिवेचा सेंटर फॉर क्लाइमेट चेंज की रिपोर्ट के मुताबिक, "हिमालय के निचले हिस्से के पीर पंजाल और ग्रेटर हिमालय जैसे ग्लेशियरों का संतुलन खराब हो सकता है। क्योंकि तापमान में बदलाव और मिट्टी नीचे बैठने के कारण ब्लैक कार्बन का इस इलाके में जमाव असर डाल सकता है।"

मंगलवार, 2 जुलाई 2013

क्या आपके कपड़ों में जहर है!

क्या आप जानते हैं कि बाजार से नया कपड़ा खरीदने के बाद उसे धो कर ही पहनना चाहिए? इसलिए नहीं कि उस पर लोगों के गंदे हाथ लगे होंगे, बल्कि इसलिए कि कपड़े बनाते समय कई जहरीले रसायनों का इस्तेमाल होता है। ये रसायन न सिर्फ त्वचा को नुक्सान पहुंचाते हैं, बल्कि कैंसर का खतरा भी पैदा करते हैं।

सोमवार, 1 जुलाई 2013

अपने घर में भी सुरक्षित नहीं बाघ

उत्तराखंड में हिमालय की तराई में स्थित जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क को इलाके में बाघों का सबसे बड़ा घर कहा जाता है। इस टाइगर रिजर्व में लगभग 200 बाघ थे। इसे बाघों की सुरक्षित शरणस्थली के तौर पर जाना जाता था। लेकिन हाल के वर्षों में बाघों की अस्वभाविक मौत की घटनाओं में वृद्धि की वजह से यह नेशनल पार्क काफी सुर्खियों में रहा है।


शनिवार, 2 जून 2012

अब तकनीक करेगी चिड़िया की लार की रक्षा


अपने सबसे कीमती उत्पाद को जालसाजों से बचाने के लिए मलेशिया की सरकार एक ऐसी तकनीक का इस्तेमाल कर रही है, जो उस उत्पाद के हर रेशे का सही सही हिसाब देगा। यह उत्पाद और कुछ नहीं यह स्विफ्टलेट चिड़िया का घोंसला है जो वो अपने थूक से धीरे धीरे बुनती है। थूक से बुना यह घोंसला चीन में सूप बना कर बड़े चाव से खाया जाता है। चीन में यह मान्यता है कि इस चिड़िया के थूक या लार से बने घोंसले का सूप पीने से त्वचा सुंदर होती है।

सोमवार, 21 मई 2012

इंसानों के लालच का शिकार हो रहा है अमेजन


अमेजन के सुंदर, हरे-भरे और प्राकृतिक संपदा से भरपूर इलाके में घूमने का आनंद स्वर्गिक है। लेकिन दुनिया की यह खूबसूरत जगह मनुष्य के लालच का शिकार बन रही है। दक्षिणी अमेरिका के उत्तर में बहने वाली अमेजन नदी की मुख्य धारा 6,400 किलोमीटर लंबी है। अलग अलग रंगों वाली सहायक नदियों के साथ मिल कर यह दुनिया की सबसे बड़ी नदी बन जाती है।

रविवार, 20 मई 2012

यर कंडीशनिंग करने वाला पौधा 'थिपाचा'


दक्षिण भारतीय राज्य केरल में एक ऐसे पौधे का पता चला है जो तेज गर्मी होने पर अपने पत्तों से पानी की बूंदें टपकाता रहता है. इस पौधे को घर की छत में लगाना खासा फायदेमंद हो सकता है. पौधे के कई औषधीय गुण भी हैं.

शनिवार, 19 मई 2012

विश्व के सबसे बड़े वर्षा वन बचाने का अभियान

दुनिया के इकलौते और सबसे बड़े वर्षा वनों को बचाने के लिए ग्रीनपीस के विश्वव्‍यापी अभियान में अब हॉलीवुड की मशहूर एक्‍टर जिलियन एंडरसन (एक्‍स फाइल्‍स की डेना स्‍कली) भी शामिल हो गई हैं। ग्रीन पीस अमेजन के वर्षा वनों में सन् 2015 तक पूरी तरह कटाई रोकने के लिए अभियान चला रही है।

शुक्रवार, 18 मई 2012

लंदन ओलिंपिक को 'ग्रीन' बनाने की कोशिश

लंदन ओलिंपिक खेलों को अब तक का सबसे 'ग्रीन' ओलिंपिक बनाना चाहता है। इसके लिए शहर में साफ-सफाई से लेकर जहरीली गैसों को कम करने पर विचार किया जा रहा है। जब लंदन को ओलिंपिक खेलों की मेजबानी के लिए चुना गया, तभी खेलों को पर्यावरण के लिहाज से अच्छा बनाने की भी बात कही गई। तब की ब्रिटिश सरकार ने दावा किया खेलों की तैयारी ऐसे की जाएगी कि लंदन और हराभरा बनाया जा सके।

शनिवार, 13 फ़रवरी 2010

कपड़े धुलेंगे मगर बिना पानी खर्च किए

यह एक अच्‍छी खबर है। ब्रिटेन में वैज्ञानिकों ने ईको फ्रेंडली वाशिंग मशीन तैयार की है। यह न के बराबर पानी के इस्तेमाल से कपड़ों को आम मशीनों की तरह ही साफ करेगी। इसमें आम मशीनों के मुकाबले बहुत कम बिजली और डिटर्जेट की जरूरत पड़ेगी।

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

बाघों को असली खतरा अमीरजादों से

एक ओर जहाँ विश्व के सभी देश लुप्तप्राय जीवों के संरक्षण के लिए अपनी तत्परता दिखा रहे हैं वहीं एशिया में नवधनाढ्यों के बीच बाघ की हड्डियों से बनने वाली शराब तथा उसके खाल, मांस और दाँतों से बनने वाले उत्पादों की बढ़ती माँग से पूरे विश्व में बाघों के संरक्षण पर खतरा मंडरा रहा है।

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

समुद्रों में बढ़ते डैड जोन से जलजीवन पर खतरा

यदि धरती पर पर्यावरण का संकट बरकरार रहा तो समुद्र में भी जीवन खत्म हो जाएगा। इसकी वजह है महासागरों के गहरे पानी में कम होती आक्सीजन की मात्रा। यह कुछ वैसा ही नजारा होगा जैसा हजारों साल पहले समुद्र में ज्वालामुखी फटने पर हुआ होगा। महासागरों के अध्ययन बता रहे हैं कि समुद्र में 'डेड जोन' बनते जा रहे हैं।

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2010

पर्यावरण में बदलाव लाता है सल्फर

धरती को सदियों से बार-बार ज्वालामुखी विस्फोटों का सामना करना पड़ा है। एक नए शोध में दावा किया गया है कि करीब दस करोड़ वर्ष पहले ज्वालामुखियों की बाढ़ में समुद्री जीवन का एक तिहाई हिस्सा खत्म हो गया होगा। अब तक माना जाता था कि वातावरण में छोड़ा जाने वाला कार्बन डाइआक्साइड मौसम में आ रहे बदलावों का मुख्य कारण है।

सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

बाघों की संख्या दोगुनी करने का संकल्प

बाघों की घटती संख्या पर चिंता

थाईलैंड में हाल ही में तेरह एशियाई देशों की एक बैठक में बाघों की लगातार घटती संख्या पर बेहद दुख जताया गया है। बैठक के दौरान संकल्प लिया कि 2022 तक बाघों की संख्या दुगुनी हो जानी चाहिए।

अब तो अपने बाघों को बचाएं

पिछली शताब्‍दी के आरंभ में बाघों की आबादी करीब 40 हजार थी। अब उनमें से केवल 1411 भारत में बाकी बचे हैं। पिछले वर्ष भारत में 86 बाघों की जान गई। भारत में करीब 37 बाघ अभयारण्‍य हैं लेकिन इनमें से करीब 17 अब अपनी बाघों की आबादी को पूरी तरह खो चुकी हैं या खोने की कगार पर हैं।

शुक्रवार, 5 जून 2009

उन्‍होंने पर्यावरण को बचा लिया

उन्‍हें यह भ्रम है कि पेड़ लगाए जाते हैं और मैं कोई पर्यावरण बचाओ आंदोलन चलाने वाला व्‍यक्ति हूं। अक्‍सर कहा जाता है "वृक्षारोपण कार्यक्रम" ....

मुझे लगता है कि यह पौधरोपण कार्यक्रम है। पौधा लगाया जाता है न कि पेड़।

खैर... मैंने विनम्रता से मना कर दिया कि मैं उनके "पेड़ लगाने" के कार्यक्रम में शामिल नहीं हो सकता क्‍योंकि वे गांरटी नहीं दे पाए कि लगाए गए पौधों की रक्षा की जाएगी और वे पेड़ बनेंगे। मैं अपने लगाए पौधों को पेड़ बनाने के लिए उनकी रक्षा भी करता हूं।

मैंने उनसे पूछा कि वो इस बारे में क्‍या कर रहे हैं? तो उनके पास कोई जवाब नहीं था। उल्‍टे उन्‍होंने एक सवाल पूछा, मेरे अकेले के करने से क्‍या होगा?

पांच जून एक भद्दा मजाक बन चुका है। 37 साल से इस दिन कितने झूठ बोले जाते हैं दिखावे किए जाते हैं लेकिन सच्‍चाई बहुत कड़वी है। मैं कुछ भयावह से आंकड़े पेश कर सकता हूं पर कोई फायदा नहीं है। सब जानते हैं।

उन्‍होंने मुझसे पूछा कि मैं क्‍या कर रहा हूं ... बताने की बाध्‍यता नहीं थी लेकिन मैंने उन्‍हें बताया कि बस इतना कर रहा हूं ...

  • पॉलीथिन बैग्‍स का इस्‍तेमाल आमतौर पर नहीं करता।
  • ब्रश और शेव करते वक्‍त वाश बेसिन का नल चालू नहीं रखता।
  • कमरे से बाहर जाते समय बिजली का लट्टू और पंखे को चालू नहीं छोड़ता।
  • अपने दोपहिया वाहन की नियमित जांच करवा कर उसे प्रदूषणमुक्‍त रखने का प्रयास करता हूं।
  • आज तक जितने पौधे लगाए उन्‍हें जीवित रखने की‍ जिम्‍मेदारी भी निभाता हूं।

और यह सब मैं किसी पर्यावरण आंदोलन को चलाने के लिए नहीं करता बल्‍ि‍क इसलिए कर रहा हूं क्‍यों कि यह मेरी जिम्‍मेदारी है। इतना तो करना ही पड़ेगा... पर्यावरण के लिए नहीं अपनी खातिर।

उन्‍होंने आज पेड़ लगाए हैं, कल अखबार में उनका फोटो छपेगा।

यानि पर्यावरण को उन्‍होंने बचा लिया।

शनिवार, 20 सितंबर 2008

प्रवासी जल पक्षियों की प्रजातियां खत्‍म होने के करीब

मानव द्वारा प्राकृतिक संसाधनों के साथ छेड़छाड़ और उनके बेहिसाब दोहन का सिलसिला जारी है। बढ़ती प्राकृतिक आपदाओं के रूप में इसके नतीजे हम भुगत भी रहे हैं। इंसानों की गलतियों का खामियाजा अब पशु-पक्षियों को भी भुगतना पड़ रहा है।

अफ्रीका और यूरेशिया में भ्रमण करने वाले प्रवासी जल पक्षियों की जनसंख्या में 40 फीसदी से अधिक की गिरावट दर्ज की गई है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक फ्लेमिंगो, क्रेन और राजहंस सरीखे पक्षियों की जनसंख्या में कमी का मुख्य कारण इनके आवास का दोहन बताया गया है।

शुक्रवार, 12 सितंबर 2008

एक टी-शर्ट की धुलाई और पर्यावरण

पर्यावरण को सबसे ज्‍यादा नुकसान पहुंचाने वाले तत्‍वो में ग्रीन हाउस गैसों का स्‍थान सबसे अव्‍वल है। आम घरों में इस्‍तेमाल होने वाली वाशिंग मशीन और रेफ्रिजरेटर भी इसके उत्‍सर्जन में अपना पूरा योगदान देते हैं। लेकिन इन वस्‍तुओं पर हमारी निर्भरता इतनी अधिक बढ़ चुकी है कि इनके बिना जीवन की कोई कल्‍पना भी नहीं करना चाहता. पर्यावरण की रक्षा करने और ग्रीन हाउस गैसों के उत्‍पादन में कटौती करने की वकालत करने वाले लगातार इस बात पर जोर दे रहे हैं कि ऐसी जीवन शैली विकसित की जानी चाहिए जिससे पर्यावरण को हानि कम से कम पहुंचे।

मंगलवार, 9 सितंबर 2008

ठंडे मौसम ने बढ़ाई थी जीवन की रफ्तार

हाल में किए गए एक अध्ययन से यह बात सामने आई है कि 50 करोड़ साल पहले मौसम के अचानक ठंडे हो जाने से जीवन के पनपने की रफ्तार बढ़ गई थी। आस्ट्रेलियाई विश्वविद्यालय के एक दल ने ईल के आकार वाले विलुप्त हो चुके एक समुद्री जीव के जीवाश्मों के अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है। दल ने सूक्ष्म दांतों जैसे आकार वाले इन जीवाश्मों में मौजूद आक्सीजन समस्थानिकों [आइसोटोप] के अनुपात का अध्ययन किया।

अनुसंधानकर्ताओं का कहना है कि जीवाश्म चट्टानों में मौजूद कैल्शियम कार्बोनेट की तुलना में जैव जीवाश्मों के भीतर लंबे समय तक आक्सीजन सुरक्षित बनी रहती है। अध्ययन यह प्रदर्शित करता है कि 49 करोड़ से 47 करोड़ साल पहले समुद्र की सतह 40 डिग्री सेल्सियस तापमान से घटकर उस तापमान पर आ पहुंची जहां आज हमारे ऊष्णकटिबंधीय इलाके हैं। यह नया तापमान लगभग ढाई करोड़ साल तक बरकरार रहा। यही वह समय है जब समुद्री जीवन विस्फोटक रफ्तार से पनपा। दरअसल इतिहास के विकास क्रम में इस दौर को सबसे तेज रफ्तार वाला दौर माना जाता है।

अध्ययन की प्रमुख अनुसंधानी डा जूली ट्राटर ने कहा कि इसके बाद समुद्र हिमनदों के तापमान तक ठंडे हो गए और इसी दौर में अनेक प्रजातियां विलुप्त हो गई। इसका अर्थ हुआ कि मौसम को बदल दिया जाए तो पृथ्वी पर जीवन बदला जा सकता है। जीवाश्मों के जरिये तापमान के रिकार्ड को हासिल करने के लिए दल ने कमरे के आकार वाले एक उपकरण का इस्तेमाल किया जिसे सेंसेटिव हाई रिजोल्यूशन आयन माइक्रोप्रोब या श्रिंप कहा जाता है यह पांच माइक्रान व्यास के अति सूक्ष्म आकार वाले नमूने से भी समस्थानिकों का माप कर सकता है। यह आकार हमारे बालों के दसवें हिस्से के बराबर है।

श्रिंप का इस्तेमाल कर फास्फेट सूक्ष्म जीवाश्मों से आक्सीजन का माप करना वास्तव में एक उपलब्धि है। श्रिंप बेहद आसान और भरोसेमंद तरीके से लाखों करोड़ों साल के दौरान मौसम में हुए बदलावों के बारे में जानकारी देता है। इस तरह से हमें इस बात को समझने में मदद मिल सकती है कि भविष्य में होने वाले मौसमी बदलावों के प्रति जीवन किस प्रकार प्रतिक्रिया करेगा। यह अध्ययन सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक पत्रिका साइंस के ताजा अंक में प्रकाशित हुआ है।