बुधवार, 13 जून 2018
सोमवार, 15 जुलाई 2013
'पार्टिकुलेट मैटर' से हर वर्ष 20 लाख की मौत
शनिवार, 13 जुलाई 2013
हिमालय के ग्लेशियरों पर कार्बन का बुरा असर
मंगलवार, 2 जुलाई 2013
सोमवार, 1 जुलाई 2013
अपने घर में भी सुरक्षित नहीं बाघ
शनिवार, 2 जून 2012
अब तकनीक करेगी चिड़िया की लार की रक्षा

अपने सबसे कीमती उत्पाद को जालसाजों से बचाने के लिए मलेशिया की सरकार एक ऐसी तकनीक का इस्तेमाल कर रही है, जो उस उत्पाद के हर रेशे का सही सही हिसाब देगा। यह उत्पाद और कुछ नहीं यह स्विफ्टलेट चिड़िया का घोंसला है जो वो अपने थूक से धीरे धीरे बुनती है। थूक से बुना यह घोंसला चीन में सूप बना कर बड़े चाव से खाया जाता है। चीन में यह मान्यता है कि इस चिड़िया के थूक या लार से बने घोंसले का सूप पीने से त्वचा सुंदर होती है।
सोमवार, 21 मई 2012
इंसानों के लालच का शिकार हो रहा है अमेजन

अमेजन के सुंदर, हरे-भरे और प्राकृतिक संपदा से भरपूर इलाके में घूमने का आनंद स्वर्गिक है। लेकिन दुनिया की यह खूबसूरत जगह मनुष्य के लालच का शिकार बन रही है। दक्षिणी अमेरिका के उत्तर में बहने वाली अमेजन नदी की मुख्य धारा 6,400 किलोमीटर लंबी है। अलग अलग रंगों वाली सहायक नदियों के साथ मिल कर यह दुनिया की सबसे बड़ी नदी बन जाती है।
रविवार, 20 मई 2012
शनिवार, 19 मई 2012
शुक्रवार, 18 मई 2012
लंदन ओलिंपिक को 'ग्रीन' बनाने की कोशिश
शनिवार, 13 फ़रवरी 2010
कपड़े धुलेंगे मगर बिना पानी खर्च किए
शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010
बाघों को असली खतरा अमीरजादों से
गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010
समुद्रों में बढ़ते डैड जोन से जलजीवन पर खतरा
मंगलवार, 2 फ़रवरी 2010
पर्यावरण में बदलाव लाता है सल्फर
सोमवार, 1 फ़रवरी 2010
बाघों की संख्या दोगुनी करने का संकल्प
थाईलैंड में हाल ही में तेरह एशियाई देशों की एक बैठक में बाघों की लगातार घटती संख्या पर बेहद दुख जताया गया है। बैठक के दौरान संकल्प लिया कि 2022 तक बाघों की संख्या दुगुनी हो जानी चाहिए।
अब तो अपने बाघों को बचाएं
शुक्रवार, 5 जून 2009
उन्होंने पर्यावरण को बचा लिया
मुझे लगता है कि यह पौधरोपण कार्यक्रम है। पौधा लगाया जाता है न कि पेड़।
खैर... मैंने विनम्रता से मना कर दिया कि मैं उनके "पेड़ लगाने" के कार्यक्रम में शामिल नहीं हो सकता क्योंकि वे गांरटी नहीं दे पाए कि लगाए गए पौधों की रक्षा की जाएगी और वे पेड़ बनेंगे। मैं अपने लगाए पौधों को पेड़ बनाने के लिए उनकी रक्षा भी करता हूं।
मैंने उनसे पूछा कि वो इस बारे में क्या कर रहे हैं? तो उनके पास कोई जवाब नहीं था। उल्टे उन्होंने एक सवाल पूछा, मेरे अकेले के करने से क्या होगा?
पांच जून एक भद्दा मजाक बन चुका है। 37 साल से इस दिन कितने झूठ बोले जाते हैं दिखावे किए जाते हैं लेकिन सच्चाई बहुत कड़वी है। मैं कुछ भयावह से आंकड़े पेश कर सकता हूं पर कोई फायदा नहीं है। सब जानते हैं।
उन्होंने मुझसे पूछा कि मैं क्या कर रहा हूं ... बताने की बाध्यता नहीं थी लेकिन मैंने उन्हें बताया कि बस इतना कर रहा हूं ...
- पॉलीथिन बैग्स का इस्तेमाल आमतौर पर नहीं करता।
- ब्रश और शेव करते वक्त वाश बेसिन का नल चालू नहीं रखता।
- कमरे से बाहर जाते समय बिजली का लट्टू और पंखे को चालू नहीं छोड़ता।
- अपने दोपहिया वाहन की नियमित जांच करवा कर उसे प्रदूषणमुक्त रखने का प्रयास करता हूं।
- आज तक जितने पौधे लगाए उन्हें जीवित रखने की जिम्मेदारी भी निभाता हूं।
और यह सब मैं किसी पर्यावरण आंदोलन को चलाने के लिए नहीं करता बल्िक इसलिए कर रहा हूं क्यों कि यह मेरी जिम्मेदारी है। इतना तो करना ही पड़ेगा... पर्यावरण के लिए नहीं अपनी खातिर।
उन्होंने आज पेड़ लगाए हैं, कल अखबार में उनका फोटो छपेगा।
यानि पर्यावरण को उन्होंने बचा लिया।
शनिवार, 20 सितंबर 2008
प्रवासी जल पक्षियों की प्रजातियां खत्म होने के करीब
मानव द्वारा प्राकृतिक संसाधनों के साथ छेड़छाड़ और उनके बेहिसाब दोहन का सिलसिला जारी है। बढ़ती प्राकृतिक आपदाओं के रूप में इसके नतीजे हम भुगत भी रहे हैं। इंसानों की गलतियों का खामियाजा अब पशु-पक्षियों को भी भुगतना पड़ रहा है।अफ्रीका और यूरेशिया में भ्रमण करने वाले प्रवासी जल पक्षियों की जनसंख्या में 40 फीसदी से अधिक की गिरावट दर्ज की गई है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक फ्लेमिंगो, क्रेन और राजहंस सरीखे पक्षियों की जनसंख्या में कमी का मुख्य कारण इनके आवास का दोहन बताया गया है।
शुक्रवार, 12 सितंबर 2008
एक टी-शर्ट की धुलाई और पर्यावरण
पर्यावरण को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाने वाले तत्वो में ग्रीन हाउस गैसों का स्थान सबसे अव्वल है। आम घरों में इस्तेमाल होने वाली वाशिंग मशीन और रेफ्रिजरेटर भी इसके उत्सर्जन में अपना पूरा योगदान देते हैं। लेकिन इन वस्तुओं पर हमारी निर्भरता इतनी अधिक बढ़ चुकी है कि इनके बिना जीवन की कोई कल्पना भी नहीं करना चाहता. पर्यावरण की रक्षा करने और ग्रीन हाउस गैसों के उत्पादन में कटौती करने की वकालत करने वाले लगातार इस बात पर जोर दे रहे हैं कि ऐसी जीवन शैली विकसित की जानी चाहिए जिससे पर्यावरण को हानि कम से कम पहुंचे।
मंगलवार, 9 सितंबर 2008
ठंडे मौसम ने बढ़ाई थी जीवन की रफ्तार
हाल में किए गए एक अध्ययन से यह बात सामने आई है कि 50 करोड़ साल पहले मौसम के अचानक ठंडे हो जाने से जीवन के पनपने की रफ्तार बढ़ गई थी। आस्ट्रेलियाई विश्वविद्यालय के एक दल ने ईल के आकार वाले विलुप्त हो चुके एक समुद्री जीव के जीवाश्मों के अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है। दल ने सूक्ष्म दांतों जैसे आकार वाले इन जीवाश्मों में मौजूद आक्सीजन समस्थानिकों [आइसोटोप] के अनुपात का अध्ययन किया।
अनुसंधानकर्ताओं का कहना है कि जीवाश्म चट्टानों में मौजूद कैल्शियम कार्बोनेट की तुलना में जैव जीवाश्मों के भीतर लंबे समय तक आक्सीजन सुरक्षित बनी रहती है। अध्ययन यह प्रदर्शित करता है कि 49 करोड़ से 47 करोड़ साल पहले समुद्र की सतह 40 डिग्री सेल्सियस तापमान से घटकर उस तापमान पर आ पहुंची जहां आज हमारे ऊष्णकटिबंधीय इलाके हैं। यह नया तापमान लगभग ढाई करोड़ साल तक बरकरार रहा। यही वह समय है जब समुद्री जीवन विस्फोटक रफ्तार से पनपा। दरअसल इतिहास के विकास क्रम में इस दौर को सबसे तेज रफ्तार वाला दौर माना जाता है।
अध्ययन की प्रमुख अनुसंधानी डा जूली ट्राटर ने कहा कि इसके बाद समुद्र हिमनदों के तापमान तक ठंडे हो गए और इसी दौर में अनेक प्रजातियां विलुप्त हो गई। इसका अर्थ हुआ कि मौसम को बदल दिया जाए तो पृथ्वी पर जीवन बदला जा सकता है। जीवाश्मों के जरिये तापमान के रिकार्ड को हासिल करने के लिए दल ने कमरे के आकार वाले एक उपकरण का इस्तेमाल किया जिसे सेंसेटिव हाई रिजोल्यूशन आयन माइक्रोप्रोब या श्रिंप कहा जाता है यह पांच माइक्रान व्यास के अति सूक्ष्म आकार वाले नमूने से भी समस्थानिकों का माप कर सकता है। यह आकार हमारे बालों के दसवें हिस्से के बराबर है।
श्रिंप का इस्तेमाल कर फास्फेट सूक्ष्म जीवाश्मों से आक्सीजन का माप करना वास्तव में एक उपलब्धि है। श्रिंप बेहद आसान और भरोसेमंद तरीके से लाखों करोड़ों साल के दौरान मौसम में हुए बदलावों के बारे में जानकारी देता है। इस तरह से हमें इस बात को समझने में मदद मिल सकती है कि भविष्य में होने वाले मौसमी बदलावों के प्रति जीवन किस प्रकार प्रतिक्रिया करेगा। यह अध्ययन सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक पत्रिका साइंस के ताजा अंक में प्रकाशित हुआ है।







