एक सीधी सी बात है कि धरती पर कोई भी जीव अकारण नहीं है. प्रकृति ने प्रत्येक जीव की कोई न कोई भूमिका निर्धारित कर रखी है. इस जीव चक्र की सभी कड़ियों का सुरक्षित रहना बेहद महत्वपूर्ण है. एक भी कड़ी टूटने का अर्थ है प्रकृति के विधान में हस्तक्षेप. पर्यावरण संतुलन पृथ्वी पर जीवन बरकरार रहने की एक मात्र गारंटी है लेकिन दुर्भाग्य से जीवों में सबसे बुद्धिमान समझा जाने वाला मानव ही इस संतुलन को सर्वाधिक क्षति पहुंचा रहा है. मानव की अनेक गतिविधियां धरती पर मौजूद अनेक प्राणियों के अस्तित्व को संकट में डाल रही हैं और बीते हुए कुछ दशकों में अनेक जीव प्रजातियां विलुप्त हो गईं या इसकी कगार पर हैं. यह अत्यधिक गंभीर संकट की ओर संकेत करता है. जीव चक्र की कड़ियों का नष्ट होना अंत में मानव जीवन पर ही भारी पड़ेगा और उसे इसकी कीमत अवश्य चुकाना पड़ेगी.
दो बेहद उपयोगी और जीव चक्र के महत्वपूर्ण जीवों का अस्तित्व मानव गतिविधियों के कारण खतरे में है. हाल ही में इस संबंध में समाचारपत्रों में एक बेहद चौंका देने वाला समाचार प्रकाशित हुआ. पर्यानाद के पाठकों को उसमें दी गई जानकारी से अवगत कराने का प्रयास कर रहा हूं. आशा करता हूं कि यह सबके मन में इस समस्या के प्रति कुछ सोचने का भाव पैदा अवश्य करेगा.
समाचार के अनुसार गुरिल्ला और गिद्धों के अस्तित्व पर संकट के बादल मँडरा रहे हैं और यदि जल्द ही इनके संरक्षण के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठाए गए तो धरती से इनका नामोनिशान मिट जाएगा. जीव-जन्तुओं की प्रजातियों की रक्षा के काम में लगे अंतरराष्ट्रीय संरक्षण संघ (आईयूसीएन) द्वारा जारी रेड लिस्ट में गुरिल्ला और गिद्धों के अस्तित्व को भारी खतरा बताया गया है. रेड लिस्ट में कहा गया है कि 20-25 साल के दौरान गुरिल्ला की 60 फीसदी आबादी नष्ट हो गई है. इस अवधि में जहाँ आवास ह्रास गुरिल्ला के लिए मुश्किल साबित हुआ है, वहीं एबोला विषाणु भी उनके लिए कहर बना हुआ है.
अफ्रीका में पाए जाने वाले पश्चिमी लोलैंड गुरिल्ला की आबादी 60 फीसदी से भी अधिक घट गई है, जबकि पश्चिमी गुरिल्ला खतरे वाली सूची से गिरकर अब अत्यधिक खतरे वाली सूची में शामिल हो गया है. सुमात्रन ओरंग उटेन (पोंगो एबेली) तथा बोर्निअन ओरंग उटेन प्रजाति के गुरिल्ले भी आईयूसीएन की अत्यधिक खतरे वाली सूची में हैं जो जल्द ही पूरी तरह विलुप्त हो सकते हैं. रिपोर्ट में कहा गया है कि यदि वनों को काटे जाने से हो रहे आवास ह्मस और शिकार को नहीं रोका गया तो गुरिल्ला के लिए भारी मुसीबत हो जाएगी. जंगलों में रहने वाले लोग माँस खाने के लिए अन्य वन्य जीवों की तरह ही गुरिल्ला का भी शिकार करते हैं.
वहीं दूसरी ओर कुदरत के ब्यूटीशियन कहे जाने वाले गिद्धों के बारे में आईयूसीएन ने कहा है कि भोजन की कमी, आवास ह्रास और बिजली के तारों से टकराने के कारण इनकी बड़े पैमाने पर मौत हो रही है.इसके अतिरिक्त पशुओं को दर्द निवारक के रूप में दी जाने वाली डाइक्लोफेनिक दवा भी गिद्धों के लिए कहर बनी हुई है. डाइक्लोफेनिक दवा पशुओं को फौरी तौर पर दर्द से छुटकारा तो दिला देती है, लेकिन यह उनकी माँस पेशियों में हमेशा के लिए जमा हो जाती है. पशु की मौत पर गिद्ध स्वभाव के अनुरूप उन्हें खाने के लिए आते हैं, लेकिन इस क्रम में डाइक्लोफेनिक दवा उनके शरीर में भी पहुँच जाती है. गिद्धों के शरीर में इस दवा के पहुँच जाने पर वे कुछ दिन बाद बीमार होने लगते हैं और धीरे-धीरे दम तोड़ देते हैं. कई देशों के साथ भारत में भी यह दवा प्रतिबंधित है, लेकिन इसके बावजूद यह मेडिकल स्टोरों पर धड़ल्ले से बिकती है.
इस बारे में में पाठकों को बताना चाहूंगा कि मेरे शहर के आस पास एक समय गिद्ध बड़ी संख्या में वास करते थे क्योंकि यह इलाका उनका पुराना आवास क्षेत्र था. इधर पिछले एक दशक से अधिक समय से किसी गिद्ध को नहीं देखा गया है. मेरे एक साथी पत्रकार ने कुछ साल पहले इस बारे में काफी खोजबीन कर एक रिपोर्ट लिखी थी. हालांकि वह काफी देर बाद लिखी गई रिपोर्ट थी लेकिन दुर्भाग्य से कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई और नतीजा सामने है. इस इलाके में गिद्ध का अस्तित्व समाप्त हो गया. अपने आस-पास देखिए, कौन सी प्रजाति लुप्त हो रही है. सोचिए कि हम बच्चों को डायनासौर की भांति कितने जीवों की तस्वीर दिखाकर बताएंगे कि कभी यह भी पृथ्वी पर रहता था.
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